द कश्मीर फाइल्स : कड़वे सत्य का पर्दाफाश || एक समीक्षा ||अश्विनी कुमार च़्रोंगू || LIVE IMAGE |
बहुप्रतीक्षित बॉलीवुड फिल्म, द कश्मीर फाइल्स, का भारत में 4 मार्च 2022 को प्रीमियर हुआ। एक चयनित दर्शकगण ने इसे वेव मॉल, नरवाल बाय-पास, जम्मू के मल्टीप्लेक्स हॉल में देखा। इस अवसर पर जम्मू शहर के क्रॉस-सेक्शन की सभा में फिल्म निर्माताओं और फिल्म के कलाकारों के अलावा राजनीतिक नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक, लेखक, बुद्धिजीवी, जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ वर्तमान और सेवानिवृत्त नागरिक और पुलिस अधिकारी शामिल थे। इस अवसर पर चयनित स्थानीय मीडिया प्रतिनिधि भी उपस्थित थे। यह फिल्म वैश्विक स्तर पर 11 मार्च 2022 को जनता के देखने के लिए रिलीज होने वाली है।
यह विवेक रंजन अग्निहोत्री प्रोडक्शन है, जिन्हें कुछ साल पहले उनके द्वारा निर्देशित फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ के लिए जाना जाता है। द कश्मीर फाइल्स में बहुत ही उल्लेखनीय कलाकार हैं जिनमें बॉलीवुड और छोटे पर्दे के बड़े नाम जैसे मिथुन चक्रवर्ती, अनुपम खेर, पल्लवी जोशी, पुनीत इस्सर, मृणाल देव कुलकर्णी, अतुल श्रीवास्तव और प्रकाश बेलावाड़ी शामिल हैं। उनके अलावा फिल्म में कई नवोदित कलाकार हैं जिन्होंने एक अमिट छाप छोड़ी है। उनमें मुख्य रूप से भाषा सुंभली, दर्शन कुमार और चिन्मय मांडलेकर शामिल हैं, जिन्होंने वास्तव में अपने शानदार प्रदर्शन से उन्हें दी गई भूमिका को सही ठहराया है।
फिल्म निश्चित रूप से एक कहानी पर आधारित नियमित बॉलीवुड फिल्म-फॉर्मूले से परे है, जो कि ज्यादातर एक प्रेम-कहानी होती है। वास्तव में फिल्म किसी पारंपरिक कथानक पर आधारित नहीं है। इसकी कहानी स्पष्ट रूप से 1990 में कश्मीरी पंडित समुदाय के नरसंहार के पीड़ितों की पहली पीढ़ी के वीडियो-साक्षात्कारों पर आधारित है जो वास्तव में फिल्म की सामग्री और प्रवाह के लिए प्रामाणिकता का मिश्रण प्रदान करता है। चूंकि कश्मीर और कश्मीरी पंडित दुनिया में किसी के लिए भी एक बहुत ही जटिल मुद्दा है, इसलिए शोध और विकास के क्षेत्रों में चलचित्र में कुछ खामियां होने की संभावना हो सकती है। उन कमियों को दूर करने के लिए, फिल्म-निर्माता ने बुद्धिमानी से कुछ पहलुओं से परहेज़ किया है जो अनुचित आलोचना और विवाद को आमंत्रित कर सकते थे।
फिल्म का मुख्य फोकस निम्नलिखित चार प्रमुख आयामों पर है: 1989-90 में जब आतंकवाद ने कश्मीर को घेर लिया था, उस स्थिति से निपटने में सरकार और प्रशासन की विफलता, कश्मीर में आतंकी मॉड्यूल के साथ राजनीतिक नेतृत्व की मौन मिलीभगत, कश्मीर में कट्टरपंथी-आतंकवादी समूह द्वारा कश्मीरी पंडितों का नरसंहार तथा विस्थापन, और उदार-धर्मनिरपेक्ष मीडिया व तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग की कश्मीर में आतंकवादी गिरोह के साथ गहरी गठजोड़, जिसका उद्देश्य कश्मीर के बारे में सच्चाई को कालीन के नीचे दबाने के लिए एक गलत राजनीतिक आख्यान बनाना रहा है।
यह फिल्म एक प्रतीकात्मक कथन और प्रस्तुति है। पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) का परिवार एक आम कश्मीरी पंडित पीड़ित परिवार का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि ब्रह्म दत्त आईएएस (मिथुन चक्रवर्ती) और डीजीपी हरि नारायण (पुनीत इस्सर) जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन राज्य के अपंग और असहाय नागरिक और पुलिस प्रशासन का प्रतीक हैं। इसी तरह से प्रो. राधिका मेनन (पल्लवी जोशी) भारत के उदार-वाम-धर्मनिरपेक्ष गिरोह का प्रतिनिधित्व करती हैं और विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव) तत्कालीन बिक-चुके मीडिया के लिए उपयुक्त रूप से कार्य करते हैं। डॉ महेश कुमार (प्रकाश बेलावाड़ी) की भूमिका चिकित्सा क्षेत्र में कश्मीरी आतंकवादियों के क्रूरतम तौर-तरीकों में से एक को सामने लाती है।
शारदा पंडित (भाषा सुंबली) का चरित्र कश्मीरी पंडितों के सामूहिक निष्कासन से पहले, उसके दौरान और बाद में उनके दर्द और अपार क्षमता दोनों के अलावा कश्मीरी पंडित नारीत्व की भूमिका का प्रतीक है; और फ़ोरूक मलिलक बिट्टा (चिन्मय मांडलेकर) और अफज़ल (सौरव वर्मा) ने पंडितों के खिलाफ आतंक और भारत के खिलाफ जेहाद को प्रतिध्वनित किया है। कृष्णा पंडित (दर्शन कुमार) पंडितों के खिलाफ नरसंहार की तीसरी पीढ़ी के शिकार हैं, जिन्होंने कश्मीर से उनके विस्थापन की वास्तविक स्थिति को न तो देखा है और न ही इस बारे में उसको बताया गया है।
वह अतीत की वास्तविकताओं से बेखबर है और उदारवादी और वामपंथी लॉबी के वैचारिक आख्यानों से तब तक अभिभूत है जब तक कि वह कश्मीर के हजारों वर्षों के अपने अविस्मरणीय अतीत के साथ नहीं जुड जाता है, जिसमें उसका परिवार भी कश्मीर में आतंकवाद के पहले पीड़ितों में शामिल है। एक बार जब वह खुद को कश्मीर के सच्चे इतिहास और वास्तविक आख्यान से जोड़ लेता है, तो वह भविष्य के लिए कश्मीर की आशा के रूप में उभरता है।
फिल्म का विषय दो मुख्य आख्यानों के इर्द-गिर्द घूमता है, यानी पिछले तीन दशकों से अधिक समय से कश्मीर घाटी में और उसके बाहर पंडित समुदाय को न्याय देने में सरकारों और प्रशासन की निरंतर और लगातार विफलता और देश को कश्मीर के विषय में गुमराह करने के प्रयास के बारे में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की असली मंशा। फिल्म में राष्ट्र के लिए एक बहुत ही शक्तिशाली संदेश है जो पुष्कर नाथ पंडित फोन पर अपने संवादों के माध्यम से देते हैं …… यानी, अगर कश्मीर को वैसे ही जाने दिया जाता है जैसा कि हो रहा है, तो यह भारत भर में ऐसे और कई कश्मीर बनाएगा। ‘रील लाइफ’ में उनका यह अंदाज वास्तविक जीवन में लगभग सत्य ही प्रमाणित हो रहा है।
कश्मीर फाइल्स एक समझौता-फॉर्मूला फिल्म नहीं है, जो कई बार दोहराए जाने वाले वाक्यांश, ‘भूल जाओ और माफ करो’ पर आधारित हो। यह बहुत ही सूक्ष्म तरीके से, किसी भी प्रकार के खटटास का निर्माण किए बिना, व्यक्तियों और संस्थानों, मित्रों और पड़ोसियों, समुदायों और संगठनों की भूमिका को इंगित करता है, जिन्होंने कश्मीर में आतंकवाद के माध्यम से मौत और विनाश के तांडव में, इस झूठे आख्यान के आधार पर योगदान दिया कि कश्मीर सांप्रदायिक कारणों और जनमत-संग्रह के तथाकथित वादे के कारण भारत से अलग हो सकता है। इसने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए पंडित समुदाय की आकांक्षाओं को, यह विश्वास करते हुए कि यह कश्मीर में उनके पुनर्वास सहित लंबे समय से लंबित समस्याओं को हल कर सकता है, को भी ध्यान में लाया है।
1990 के कश्मीर से निष्कासन के बाद में हुए, अल्पसंख्यकों के संगठित-नरसंहारों को भी फिल्म में जगह मिली है। यह फिल्म क्रूर जातीय-सफाया, यातना, बलात्कार और बच्चों, महिलाओं, वरिष्ठ लोगों व सदियों पुराने रिश्तों की हत्या और अन्य मानवाधिकारों के उल्लंघन को व्यक्त करने के लिए एक बहुत मजबूत कथानक है। बॉलीवुड में अपनी भूमिका निभाने के लिए फिल्मों में सनसनीखेज़ दृश्यों को दरशाने का एक सामान्य प्रलोभन है, जिसे इस प्रोडक्शन ने आम तौर पर, कुछ परिहार्य दृश्यों को छोड़कर, टाल दिया है। फिल्मों में लम्बी अवधि के दॄशय का उपयोग आम तौर पर बोरियत का तत्व भी सामने लाता है, और ऐसे फ्रेम को जैसा कि संभव होता, दो या तीन भागों में विभक्त किया जा सकता था ।
दस्तावेज़ीकरण का हमारे जीवन की घटनाओं पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है और इस तथ्य को फिल्म में अच्छी तरह से स्वीकार किया गया है और मान्यता भी दी गई है। हालांकि मानवीय दृष्टिकोण पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित किया गया है, फिर भी चलचित्र बहुत ही प्रासंगिक सामाजिक-राजनीतिक संदेश देने में सफल हुआ है। कश्मीर घाटी में कट्टर आतंकवादियों और आतंकवादी योजनाकारों को राजनीतिक वर्ग और सामाजिक प्रभावकों में परिवर्तित करने के षंडयंत्र को बहुत ही पेशेवर तरीके से चित्रित किया गया है। कहानी के नैतिक संदेश में एक महत्वपूर्ण नोट शामिल है और वह यह है कि ‘इतिहास के तथ्यों को भुलाया नहीं जा सकता है’। उन्हें याद रखने की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अतीत की गलतियों को भविष्य में दोहराया न जाए।
कश्मीर के बारे में वास्तविक तथ्यों को जानने के लिए ‘द कश्मीर फाइल्स’ को समाज के गैर-कश्मीरी वर्गों द्वारा अधिक देखने की जरूरत है और इस संबंध में, फिल्म में अंग्रेज़ी में उपशीर्षक उन्हें विषय को अच्छी तरह से समझने में बहुत मदद देगें। फिल्म के अंत में एक बहुत ही सकारात्मक संदेश है। फिल्म निर्माता कश्मीर के सकारात्मक पहलुओं को दुनिया के सामने लाने की जिम्मेदारी कश्मीर की युवा पीढ़ियों पर डालता है और उन पर बहुत विश्वास भी रखता है। वास्तव में, यह फिल्म इस गाथा का अंत नहीं है बल्कि यह कश्मीर के संबंध में नई उम्मीदों और अवसरों के द्वार खोलती है। कश्मीर की बेहतरी के लिए फिल्म के सूत्र को आगे ले जाने की बेहद ज़रूरत है।
संक्षेप में ‘द कश्मीर फाइल्स’ के संदर्भ में सही इरादा और कड़ी मेहनत, नोबल पुरस्कार विजेता, अलेक्जेंडर सोलजेनिस्टिन के इन सुनहरे शब्दों का एक प्रकार से प्रकटीकरण है : “बुराई के बारे में चुप रहने में, इसे हमारे भीतर इतना गहरा दफनाने में कि इसका कोई संकेत बाहरी सतह पर दिखाई न दे, हम इसे प्रत्यारोपित कर रहे हैं, और भविष्य में यह फिर से एक हज़ार गुना बढ़ जाएगा। जब हम दुष्टों को न तो दंडित करते हैं और न ही फटकार लगाते हैं, तो हम न्याय की नींव को तोड़ रहे हैं, जिसका कोई नामोनिशान हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए बुराई से सुरक्षित होने के लिए बच नहीं पायेगा”।
By – Ashwani Kumar Chrungoo
(The author is a senior BJP & KP leader, Incharge: Deptt of Political Feedback, BJP-J&K and can be reached at: ashwanikc2012@gmail.com)
(लेखक भाजपा और कश्मीरी पंडितों के एक वरिष्ठ नेता व प्रभारी, राजनीतिक प्रतिपुष्टि विभाग, भाजपा-जम्मू-कश्मीर हैं।ashwanikc2012@gmail.com पर उनसे संपर्क किया जा सकता है)